जब 38 साल की कोनेरू हम्पी FIDE वीमेंस वर्ल्ड कप के फाइनल में पहुंचीं, तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। यह उनकी उम्र को देखते हुए नहीं, बल्कि उस जुनून और मेहनत को देखकर कहा जा सकता है, जो उन्होंने हर चाल में उतारी। फाइनल में भले ही 19 साल की दिव्या देशमुख ने बाजी मार ली, लेकिन हम्पी की यह हार भी अपने आप में एक बड़ी जीत है।
थकावट नहीं, ताक़त का नाम है कोनेरू हम्पी
उनके कोच और सेकंड कुशाग्र कृष्णटर ने जो कहा, वह हम सबकी आंखें खोलने के लिए काफी है। उन्होंने बताया कि यह सात दिन उनके करियर के सबसे थकाऊ दिन रहे, और वो भी तब, जब उनका साथ देने वाली खिलाड़ी कोई युवा नहीं, बल्कि 38 साल की अनुभवी ग्रैंडमास्टर थी।
हर मैच के बाद घंटों की तैयारी, रात 11 बजे तक बैठकों का दौर, फिर सुबह 8 बजे से नई योजना बनाना, ये सब कोई मशीन भी करे तो थक जाए। लेकिन हम्पी ने न सिर्फ यह सब किया, बल्कि मुस्कान के साथ किया। यही तो वो जज़्बा है, जो उन्हें कोनेरू हम्पी बनाता है।
एक चाल से जीत नहीं, लेकिन हर चाल से दिल जीत लिया
गौरतलब हो कि, दिव्या देशमुख के खिलाफ पहले दो क्लासिकल गेम्स ड्रॉ रहे। फिर रैपिड में भी पहला मैच बराबरी पर रहा। इसके बाद हम्पी आखिरी गेम में जाकर हार आई, लेकिन तब तक वह हर दर्शक का दिल जीत चुकी थीं। वो हर मूव में अनुभव की एक नई परिभाषा लिख रही थीं।
इससे पहले चीन की लेई टिंगजी के खिलाफ खेले गए मैच में जब सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी थीं, तब भी हम्पी ने हार नहीं मानी। उनके कोच को लगा कि अब कुछ बचा नहीं है, लेकिन हम्पी ने खेल जारी रखा और एक मोड़ पर जाकर जीत उनके सामने थी।
एक खिलाड़ी नहीं, प्रेरणा हैं हम्पी
भारतीय दिग्गज विश्वनाथन आनंद की बात अगर कोई समझे, तो वह हम्पी की असली ताकत को बड़े ही आसानी से समझ सकता है। आनंद ने FIDE वीमेंस वर्ल्ड कप 2025 के बाद कहा कि हम्पी का स्टाइल बदल रहा है, वह खुद को लगातार अपडेट कर रही हैं, नई चालों को सीख रही हैं और हर फॉर्मेट में खुद को ढाल रही हैं।
बता दें कि, यह वही हम्पी हैं, जिन्होंने पिछले साल वर्ल्ड रैपिड चैंपियनशिप भी जीती थी। अब वो हार या जीत के दबाव में नहीं खेलतीं, बल्कि खुद को एंजॉय करने के लिए और अपनी कला को जिंदा रखने के लिए खेलती हैं। शायद इसी वजह से उनकी हर चाल में आत्मविश्वास झलकता है, जो सिर्फ अनुभव से नहीं, बल्कि आत्म-विश्वास से आता है।
परिवार और करियर के बीच एक संतुलन की मिसाल
एक महिला खिलाड़ी के लिए सबसे बड़ी चुनौती सिर्फ खेल नहीं होती, बल्कि उसका परिवार भी होता है, उसकी जिम्मेदारियाँ होती हैं। लेकिन हम्पी ने पिछले कुछ सालों में जो संतुलन बनाया है, वो एक मिसाल है।
कुशाग्र कहते हैं कि क्वार्टरफाइनल के बाद हम्पी पूरी तरह अपने खेल में डूब गई थीं। उन्होंने हर रिश्ते, हर जिम्मेदारी से खुद को कुछ दिनों के लिए सिर्फ इसलिए अलग कर लिया, ताकि वो अपने देश के लिए, खुद के लिए, वो आखिरी मुकाम हासिल कर सकें।
फॉर्मेट की नहीं, मनोबल की थी ये जीत थी
FIDE वीमेंस वर्ल्ड कप कोई साधारण टूर्नामेंट नहीं है। हर खिलाड़ी को सात अलग-अलग राउंड्स में भिड़ना होता है। हर बार एक नई प्रतिद्वंदी, एक नई रणनीति और हर बार जीत के लिए वही पुरानी तपस्या करनी पड़ती है। हम्पी ने हर मैच को ऐसे खेला जैसे ये उनका आखिरी मौका हो और शायद इसी वजह से वो इतने करीब पहुंचीं।
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